शकील शाह (संवाददाता)
चकिया। क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत के रूप में प्रसिद्ध बाबा लतीफशाह के तीन दिवसीय ऐतिहासिक मेले का आयोजन 14 सितंबर से होगा। तीन दिवसीय मेले के दौरान बाबा की मजार, चकिया नगर, बरहुआ गांव, सोनहुल गांव, सिकंदरपुर में विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन होंगे। मेले के दूसरे दिन उपजिलाधिकारी आवास परिसर में स्थित वट वृक्ष के नीचे कजरी महोत्सव का आयोजन किया जाएगा।
पहले दिन मेला बाबा लतीफशाह की मजार पर लगेगा। दूसरे दिन मेला चकिया नगर के गांधी पार्क, महाराजा का किला, कचहरी परिसर, मां काली जी का पोखरा परिसर तथा पोखरे के सामने स्थित परिसर में लगेगा। मेले के दूसरे दिन 104 वर्षों से आयोजित होने वाले ऐतिहासिक कजरी महोत्सव का आयोजन नगर पंचायत की ओरसे किया जाएगा इस संबंध में नगर पंचायत अध्यक्ष अशोक कुमार बागी ने बताया कि महोत्सव में कजरी प्रतियोगिता होगी। प्रतियोगिता में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान प्राप्त करने वाले गायकों को प्रमाण पत्र और शील्ड देकर सम्मानित किया जाएगा। मेले के पहले दिन बरहुंआ गांव में, दूसरे दिन सोनहुल गांव में, तीसरे दिन चकिया मां काली जी के पोखरे पर तथा चौथे दिन सिकंदरपुर में कुश्ती दंगल का आयोजन किया जाएगा।
शिकारगंज। लतीफशाह कौमी एकता प्रेम, सद्भाव, भाईचारा के प्रतीक थे तीज के तीसरे दिन उनकी मजार पर मेला लगता है जिसमें सभी समुदायों व वर्गों के लोगों का जुटाव होता है।
कहा जाता है कि बाबा लतीफशाह का जन्म तेरहवीं शताब्दी में फारस के बगदाद शहर में हुआ था। वे ख्वाजा मुईनुद्दीन शाह चिश्ती के रिश्तेदारों में थे तथा उन्हीं के साथ इनके परिजन भारत आए थे। भारत आने के बाद बाबा लतीफशाह ने धर्मप्रचार के साथ ही प्रेम, अहिंसा तथा भाईचारा का संदेश देना शुरू किया। यह सल्तनत काल में शासकों को पसंद नहीं आया। इस पर उन्होंने दिल्ली छोड़ दिया तथा पूरे भारत वर्ष में घूम कर प्रेम तथा सद्भाव की अलख जगाने लगे। इसी दौरान वे कर्मनाशा नदी के इस निर्जन तट पर पहुंचे तथा वही अपना डेरा डाल दिया। बाबा के योग तथा तप के चलते हिंसक जानवर भी उनके हमराह बन गए। उसी समय कर्मनाशा नदी के पास ही बाबा प्रीतम दास का मठ स्थित था। प्रीतम दास के शिष्य बनवारी दास भी बाबा लतीफशाह के समकालीन थे। बाबा ने लतीफशाह आने के बाद प्रीतमदास से भारतीय संस्कृति, धर्म तथा वेद शास्त्रों की जानकारी प्राप्त की। प्रीतम दास के शिष्य होने का दावा करने वाले दो संत हो गए थे। इस पर बाबा प्रीतम दास ने बाबा वनवारी दास तथा लतीफशाह के बीच आध्यात्मिक प्रतियोगिता कराई जिसमें बाबा लतीफशाह ने श्रेष्ठता सिद्ध की। बाबा के निधन के बाद उन्हें वहीं दफना दिया गया, लेकिन उनके निराकर ब्रहम, प्रेम, उपासना, सद्भाव, भाईचारे के संदेश आज भी अमर है। तत्कालीन काशी नरेश महाराजा उदित नारायण सिंह ने 1787 में जब चकिया में काली जी के मंदिर का निर्माण आरंभ किया तो उन्होंने बाबा की मजार को भी बनवाया। मजार पर तीज के तीसरे दिन मेला लगने लगा जो अब तक जारी है।
चकिया। क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत के रूप में प्रसिद्ध बाबा लतीफशाह के तीन दिवसीय ऐतिहासिक मेले का आयोजन 14 सितंबर से होगा। तीन दिवसीय मेले के दौरान बाबा की मजार, चकिया नगर, बरहुआ गांव, सोनहुल गांव, सिकंदरपुर में विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन होंगे। मेले के दूसरे दिन उपजिलाधिकारी आवास परिसर में स्थित वट वृक्ष के नीचे कजरी महोत्सव का आयोजन किया जाएगा।
पहले दिन मेला बाबा लतीफशाह की मजार पर लगेगा। दूसरे दिन मेला चकिया नगर के गांधी पार्क, महाराजा का किला, कचहरी परिसर, मां काली जी का पोखरा परिसर तथा पोखरे के सामने स्थित परिसर में लगेगा। मेले के दूसरे दिन 104 वर्षों से आयोजित होने वाले ऐतिहासिक कजरी महोत्सव का आयोजन नगर पंचायत की ओरसे किया जाएगा इस संबंध में नगर पंचायत अध्यक्ष अशोक कुमार बागी ने बताया कि महोत्सव में कजरी प्रतियोगिता होगी। प्रतियोगिता में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान प्राप्त करने वाले गायकों को प्रमाण पत्र और शील्ड देकर सम्मानित किया जाएगा। मेले के पहले दिन बरहुंआ गांव में, दूसरे दिन सोनहुल गांव में, तीसरे दिन चकिया मां काली जी के पोखरे पर तथा चौथे दिन सिकंदरपुर में कुश्ती दंगल का आयोजन किया जाएगा।
शिकारगंज। लतीफशाह कौमी एकता प्रेम, सद्भाव, भाईचारा के प्रतीक थे तीज के तीसरे दिन उनकी मजार पर मेला लगता है जिसमें सभी समुदायों व वर्गों के लोगों का जुटाव होता है।
कहा जाता है कि बाबा लतीफशाह का जन्म तेरहवीं शताब्दी में फारस के बगदाद शहर में हुआ था। वे ख्वाजा मुईनुद्दीन शाह चिश्ती के रिश्तेदारों में थे तथा उन्हीं के साथ इनके परिजन भारत आए थे। भारत आने के बाद बाबा लतीफशाह ने धर्मप्रचार के साथ ही प्रेम, अहिंसा तथा भाईचारा का संदेश देना शुरू किया। यह सल्तनत काल में शासकों को पसंद नहीं आया। इस पर उन्होंने दिल्ली छोड़ दिया तथा पूरे भारत वर्ष में घूम कर प्रेम तथा सद्भाव की अलख जगाने लगे। इसी दौरान वे कर्मनाशा नदी के इस निर्जन तट पर पहुंचे तथा वही अपना डेरा डाल दिया। बाबा के योग तथा तप के चलते हिंसक जानवर भी उनके हमराह बन गए। उसी समय कर्मनाशा नदी के पास ही बाबा प्रीतम दास का मठ स्थित था। प्रीतम दास के शिष्य बनवारी दास भी बाबा लतीफशाह के समकालीन थे। बाबा ने लतीफशाह आने के बाद प्रीतमदास से भारतीय संस्कृति, धर्म तथा वेद शास्त्रों की जानकारी प्राप्त की। प्रीतम दास के शिष्य होने का दावा करने वाले दो संत हो गए थे। इस पर बाबा प्रीतम दास ने बाबा वनवारी दास तथा लतीफशाह के बीच आध्यात्मिक प्रतियोगिता कराई जिसमें बाबा लतीफशाह ने श्रेष्ठता सिद्ध की। बाबा के निधन के बाद उन्हें वहीं दफना दिया गया, लेकिन उनके निराकर ब्रहम, प्रेम, उपासना, सद्भाव, भाईचारे के संदेश आज भी अमर है। तत्कालीन काशी नरेश महाराजा उदित नारायण सिंह ने 1787 में जब चकिया में काली जी के मंदिर का निर्माण आरंभ किया तो उन्होंने बाबा की मजार को भी बनवाया। मजार पर तीज के तीसरे दिन मेला लगने लगा जो अब तक जारी है।





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